हरतालिका तीज केवल व्रत या धार्मिक अनुष्ठान भर नहीं, ये आस्था, समर्पण, और त्याग का जीवंत प्रतीक है



(आलेख - मोनिका कश्यप)

हरतालिका तीज केवल एक व्रत या धार्मिक अनुष्ठान भर नहीं है, यह भारतीय स्त्री की आस्था, त्याग और समर्पण का जीवंत प्रतीक है। भाद्रपद शुक्ल पक्ष की तृतीया को मनाया जाने वाला यह पर्व विशेषकर उत्तर भारत की महिलाओं के लिए गहरी आस्था का पर्व माना जाता है। इस दिन विवाहिताएँ अपने पति की दीर्घायु और अखंड सौभाग्य के लिए व्रत रखती हैं, वहीं अविवाहित कन्याएँ मनचाहा वर पाने की कामना करती हैं।

कहा जाता है कि इसी दिन माता पार्वती ने कठोर तपस्या कर भगवान शिव को पति रूप में प्राप्त किया था। इसी मान्यता के कारण यह पर्व "हरतालिका" कहलाता है – "हर" अर्थात शिव और "आलिका" अर्थात सहेली, जिनकी प्रेरणा से पार्वती ने तप किया था। महिलाएँ इस दिन दिनभर निर्जला उपवास रखकर रात भर जागरण करती हैं। हाथों में मेंहदी, माथे पर सिंदूर, हरे रंग की साड़ी और श्रृंगार की 16 कलाएँ इस व्रत को और अधिक सौंदर्य प्रदान करती हैं।

तीज केवल पूजा का दिन नहीं है, बल्कि यह नारी जीवन के उत्साह और उल्लास का भी पर्व है। झूले, गीत, लोकनृत्य और सखियों का साथ – यह सब तीज को जीवन का रंगीन उत्सव बना देते हैं। हरतालिका तीज पर जब महिलाएँ नदी या तालाब के किनारे मिट्टी की शिव-पार्वती की प्रतिमा बनाकर उनकी पूजा करती हैं, तब यह दृश्य केवल धार्मिक नहीं, बल्कि नारी की आध्यात्मिक शक्ति और प्रकृति से उसके गहरे संबंध का प्रतीक भी बन जाता है।

यह व्रत नारी की त्यागमयी शक्ति और उसकी सहनशीलता का जीवंत उदाहरण है। पति के सुख, परिवार की समृद्धि और भविष्य की मंगलकामना में दिनभर उपवास करना, जागरण करना और अपनी थकान भुलाकर पूजा में लीन रहना – यही इस पर्व की आत्मा है। तीज हमें यह संदेश देता है कि स्त्री केवल अपने परिवार का आधार ही नहीं, बल्कि संस्कृति की वाहक भी है।

आज जब समय बदल रहा है और जीवन की आपाधापी में परंपराएँ धुंधली हो रही हैं, ऐसे में हरतालिका तीज हमें हमारी जड़ों से जोड़ता है। यह पर्व हमें स्मरण कराता है कि प्रेम और समर्पण से बड़ा कोई धर्म नहीं, और नारी शक्ति का सबसे बड़ा आभूषण उसकी आस्था और त्याग है।


हरतालिका तीज स्त्री शक्ति, सौंदर्य और समर्पण का उत्सव है – जहाँ भक्ति और प्रेम का संगम दिखाई देता है।

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